भारत के इतिहास में चोल वंश (Chola Dynasty) एक ऐसा राजवंश था जिसने न केवल दक्षिण भारत बल्कि दक्षिण-पूर्व एशिया तक अपना प्रभुत्व स्थापित किया। यह वंश लगभग 9वीं से 13वीं सदी के बीच अपने शिखर पर रहा और इसके सबसे प्रसिद्ध शासक थे राजराज चोल I और उनके पुत्र राजेंद्र चोल I
राजराज चोल ने अपने शासनकाल में तंजावुर को राजधानी बनाकर एक शक्तिशाली राज्य खड़ा किया। उन्होंने प्रसिद्ध बृहदेश्वर मंदिर का निर्माण कराया, जो आज भी भारतीय वास्तुकला का एक अद्वितीय उदाहरण है। वहीं, उनके पुत्र राजेंद्र चोल ने इसे और आगे बढ़ाया — उन्होंने श्रीलंका, मालदीव और यहां तक कि इंडोनेशिया (श्रीविजय साम्राज्य) तक सैन्य अभियान चलाए। यह भारतीय इतिहास में पहली बार था जब किसी राजा ने समुद्र पार जाकर विदेशी भूमि पर विजय प्राप्त की।
चोलों की नौसेना शक्ति अतुलनीय थी। उन्होंने व्यापार मार्गों को सुरक्षित कर, भारत के मसालों, रेशम और रत्नों को दक्षिण-पूर्व एशिया और अरब देशों तक पहुँचाया। इसके साथ ही, उन्होंने प्रशासनिक सुधार भी किए — जैसे गांव स्तर की स्वशासन प्रणाली, जो आज भी भारत में पंचायत व्यवस्था की जड़ मानी जाती है।
चोल वंश की विरासत आज भी मंदिरों, शिलालेखों और कला में जीवित है। यह वंश न केवल एक राजनीतिक शक्ति था, बल्कि एक सांस्कृतिक और समुद्री महाशक्ति भी था जिसने भारत को वैश्विक मानचित्र पर स्थान दिलाया।
चोल वंश की उत्पत्ति
- चोलों का सबसे प्रारंभिक उल्लेख अशोक के शिलालेखों में “Cholas” नाम से मिलता है।
- परंतु यह वंश अपने चरम पर पहुंचा राजराज चोल, (985–1014 ई.) और उसके पुत्र राजेन्द्र चोल (1014–1044 ई.) के काल में।
प्रमुख शासक
1. राजराज चोल:
- बृहदीश्वर मंदिर (तंजावुर) का निर्माण कराया, जो आज भी स्थापत्य कला का अद्भुत उदाहरण है।
- श्रीलंका के उत्तरी भागों पर अधिकार किया।
2. राजेन्द्र चोल:
- गंगा तक उत्तर भारत में सफल सैन्य अभियान।
- समुद्र पार अभियानों के ज़रिये श्रीविजय साम्राज्य (आज का इंडोनेशिया और मलेशिया) को चुनौती दी।
- अपने नए राजधानी गंगईकोंड चोलपुरम की स्थापना की।
प्रशासन और समाज
चोलों का प्रशासन व्यवस्थित और विकेन्द्रीकृत था।
गाँवों की स्वशासन प्रणाली (Gram Sabhas) विकसित थी।
राजस्व संग्रह प्रणाली अत्यंत संगठित थी, जिसमें भूमि की उपज के अनुसार (कर) यानी (Tax) लगते थे।
चोलों की अंतरराष्ट्रीय छवि
- उन्होंने भारतीय संस्कृति, धर्म (विशेषतः शैव धर्म) और वास्तुकला को विदेशों तक पहुँचाया।
- दक्षिण-पूर्व एशिया में कई मंदिर और संस्कृतियाँ चोल प्रभाव में हैं।
कला संस्कृति और स्थापत्य
चोल साम्राज्य भारतीय कला और स्थापत्य का स्वर्ण युग माना जाता है:
- द्रविड़ शैली की वास्तुकला चोलों के समय अत्यंत
उन्नत हुई। - नटराज की कांस्य मूर्तियाँ विश्व
प्रसिद्ध हैं। - तमिल साहित्य, विशेषकर शैव और वैष्णव भक्ति आंदोलन, को प्रोत्साहन मिला।
- बृहदेश्वर मंदिर (Thanjavur) इस युग की सबसे महान
स्थापत्य उपलब्धि है — यह UNESCO विश्व धरोहर भी है। https://whc.unesco.org/en/list/250/ - चोलों ने कांस्य मूर्तिकला को भी एक नई ऊंचाई पर पहुँचाया।
- मंदिर सिर्फ पूजा स्थल नहीं थे, बल्कि प्रशासन और सामाजिक जीवन के केंद्र भी थे।
चोल साम्राज्य कि समुद्री ताकत:
चोल साम्राज्य की सबसे विशेष बात थी इनकी समुद्री शक्ति:
- राजेंद्र चोल I ने श्रीविजय साम्राज्य (आज का इंडोनेशिया) पर हमला किया।
- चोलों की नौसेना इतनी शक्तिशाली थी कि उन्होंने श्रीलंका, मालदीव, और अन्य द्वीपों पर विजय प्राप्त की।
- चोल भारत का पहला साम्राज्य था जिसने संगठित नौसेना खड़ी की।
- उनकी नौसेना ने सुमात्रा, जावा और मलक्का जैसे क्षेत्रों में हस्तक्षेप किया।
- यह एक तरह से भारत का पहला “सामुद्रिक साम्राज्य” था।
- व्यापार मार्गों की रक्षा और धार्मिक प्रसार के लिए यह नौसैनिक शक्ति अत्यंत उपयोगी रही।
पतन
- 13वीं शताब्दी के बाद पांड्य और होयसाल वंशों के उदय और आंतरिक संघर्षों ने चोल साम्राज्य को कमजोर किया।
- अंततः चोल वंश का पतन हो गया, पर इसकी सांस्कृतिक छाप आज भी तमिलनाडु और दक्षिण-पूर्व एशिया में देखी जा सकती है।
निष्कर्ष:
चोल वंश केवल दक्षिण भारत का एक समृद्ध साम्राज्य नहीं था, बल्कि यह एक सांस्कृतिक दूत भी था जिसने भारतीय संस्कृति, स्थापत्य और धर्म को समुद्र पार तक पहुँचाया। चोलों की राजनीतिक दूरदृष्टि, सैन्य रणनीति और सांस्कृतिक महानता ने उन्हें इतिहास में अमर बना दिया।
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